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संकलन -आचार्य रणजीत स्वामी
दैत्यराज बलि के 100 पुत्र थे जिसमे उसके सबसे बड़े पुत्र का नाम वाणासुर था । वाणासुर बचपन से ही भगवान शिव का परम भक्त था जब वाणासुर बड़ा हुआ तो वह हिमालय पर्वत की उच्ची चोटियों पर भगवान शिव की तपस्या करने लगा ।
उसके कठिन तपस्या को देख भगवान शिव उससे प्रसन्न हुए तथा उसे सहस्त्रबाहु के साथ साथ अपार बलशाली होने का वरदान दिया । भगवान शिव के इस वरदान द्वारा वाणासुर अत्यन्त बलशाली हो गया कोई भी युद्ध में उसके आगे क्षण भर मात्र भी टिक नहीं सकता था ।
वाणासुर को अपने बल पर इतना अभिमान हो गया की उसने कैलाश पर्वत में जाकर भगवान शिव को युद्ध के लिए चुनौती दे डाली । वाणासुर की इस मूर्खता को देख भगवान शिव क्रोधित हो गए परन्तु फिर अपने भक्त की इस मूर्खता को उन्होंने उसकी नादानी समझी और कहा अरे मुर्ख ! तेरे घमंड को चूर करने वाला उतपन्न हो चुका है, जब तेरे महल की ध्वजा गिरे तो समझ लेना की तेरा शत्रु आ चुका है ।
वाणासुर की एक पुत्री थी जिसका नाम उषा था । एक दिन उषा को एक सपना आया जिसमे उसने भगवान श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा, वे इतना आकर्षक थे की उषा उन पर मोहित हो गई । उषा जब सुबह उठी तो उसने अपने स्वप्न वाली बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताई ।
चित्रलेखा ने अपने योगमाया से अनिरुद्ध का चित्र बनाकर उषा को दिखाया । उषा तुरंत उस चित्र को पहचान गई और कहा यह वही राजकुमार है जिसे मेने स्वप्न में देखा था । इसके बाद चित्रलेखा ने द्वारिका जाकर सोते हुए अनिरुद्ध को पलंग सहित उषा के महल में पहुंचा दिया । जब अनिरुद्ध नींद से जागे तो उन्होंने अपने आपको एक नए स्थान पर पाया उनके पलंग के सामने एक सुन्दर कन्या बैठी थी ।
तब उषा ने अनिरुद्ध को अपने स्वप्न वाली बात बताई तथा उनके साथ विवाह करने की अपनी इच्छा जाहिर की । अनिरुद्ध भी उषा पर मोहित हो गए तथा उसके साथ महल में रहने लगे ।
जब उषा के महल से किसी पुरष की आवाज महल के पहरेदारों को सुनाई दी तो उन्हें संदेह हुआ तथा उन्होंने यह बात वाणासुर को बताई । वाणासुर भी महल के ध्वजा गिरने से यह समझ गया था की महल में ऐसा कोई व्यक्ति आ चुका है जो उसके मृत्यु का कारण बनेगा । वाणासुर अपनी सेना के साथ उषा के महल में गया तथा उसने अनिरुद्ध को बलपूर्वक बंधी बना लिया ।
उधर द्वारिका में अनिरुद्ध को उनके महल से गायब हुए देख सब चिंतित हो अनिरुद्ध की खोज-खबर करने लगे । तब देवर्षि नारद द्वारिका पहुंचे तथा उन्होंने श्रीकृष्ण को बताया की उनके पौत्र अनिरुद्ध को वाणासुर ने बंधी बनाया है ।
भगवान श्री कृष्ण बलराम सहित तुरंत वाणासुर के साथ युद्ध के लिए निकले । बलराम ने अपने बल से वाणासुर के सभी सेनिको का वध कर दिया उधर भगवान श्री कृष्ण और वाणासुर के मध्य भी भीषण युद्ध होने लगा । परन्तु जब वाणासुर ने भगवान श्री का युद्ध में पलड़ा भरी होते देखा तो उसने भगवान शिव को याद किया ।
वाणासुर की पुकार को सुनकर भगवान शंकर ने अपने रुद्रगणो की सेना को युद्ध में भेजा । परन्तु उन्हें बलराम और श्री कृष्ण के साथ युद्ध में पराजय का समाना करना पडा । अंत में स्वयं महादेव शिव अपने भक्त की रक्षा के लिए युद्ध में उतरे. भगवान शिव और कृष्ण के मध्य इतना भयंकर युद्ध हुआ की सम्पूर्ण सृष्टि इसके प्रभाव से काँपने लगी ।
जब श्री कृष्ण को लगा की भगवान शंकर के रहते वे अनिरुद्ध को नहीं बचा पायेंगे तब उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ भगवान शिव की स्तुति करी और कहा हे महादेव ! आपने खुद कहा था की में वाणासुर के मृत्यु का कारण बनूंगा परन्तु आपके रहते यह कार्य सम्भव नहीं हो सकता । आपकी कहि हुई बात मिथ्या नहीं हो सकती अतः आप ही कोई मार्ग निकालें । तब महादेव ने श्री कृष्ण को आशीर्वाद देते हुए कुछ इशारा किया ।
भगवान शिव का इशारा पाते ही श्री कृष्ण ने उन पर निंद्रास्त्र चला दिया जिस से शिव गहरी निद्रा में सो गए और युद्ध रुक गया । अंत में श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र निकाल कर वाणासुर की भुजाएं काटना शुरू कर दिया । भगवान श्री कृष्ण ने वाणासुर की चार भुजाएं छोड़ कर सभी भुजाएं काट दी ।
जैसे ही भगवान श्री कृष्ण वाणासुर के सर को उसके धड़ से अलग करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र को इशारा कर रहे थे उसी समय भगवान शिव पुनः निंद्रा से जाग गए । अपने भक्त का जीवन समाप्त होते देख शिव एक बार फिर रणक्षेत्र में आ गए और उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा की वो वाणासुर को मरने नहीं दे सकते क्योंकि वो उनका भक्त है । इसलिए या तो तुम मुझसे पुनः युद्घ करो अथवा इसे जीवनदान दो ।
भगवन शिव की बात मानकर श्रीकृष्ण ने बाणासुर को मारने का विचार त्याग दिया और महादेव से कहा की हे भगवन जो आपका भक्त हो उसे इस ब्रम्हांड में कोई नहीं मार सकता किन्तु इसने अनिरुद्ध को बंदी बना रखा है । ये सुनकर भोलेनाथ ने बाणासुर को अनिरुद्ध को मको मुक्त करने की आज्ञा दी ।बाणासुर ने ख़ुशी ख़ुशी अपनी पुत्री का हाथ अनिरुद्ध के हाथ में दिया और श्रीकृष्ण का समुचित सत्कार कर उन्हें विदा किया ।

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संकलन - मनोज झखनाड़ीया 
तुलसी से जुड़ी एक कथा बहुत प्रचलित है। तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था। वृंदा का जन्म  राक्षस कुल में हुआ था।  वृन्द बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी। बड़े ही प्रेम से भगवान चक्रधारी की सेवा, पूजा किया करती थी. बड़ी होने पर वृन्द का विवाहराजा जलंधर (एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म  लिया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था  ) से हो गया
जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध  किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवि पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।
वृंदा पतिपरायण स्त्री थी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये। सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता ।
फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।
भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे
ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?
उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये।
सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे
सती हो गयी।
उनकी राख से एक पौधा निकला तब
भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से
इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में
बिना तुलसी जी के भोग
स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में
किया जाता है.देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है !
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